शनिवार, 30 मई 2009

कविता

दो पग हम बढ़े, दो पग तुम बढ़ो...दो पग हम बढ़े, दो पग तुम बढ़ो

फिर देखो ये धरा निराली..

हम सब फूल है जिस बगिया के उस बगिया का एक है माली।

क्या कनेर गुड़हल गुलाब सब है उसके प्यारे..

नजर बराबर सब पर उसकी सब पर उसकी सब है उसके न्यारे।

फिर करते क्यों भेदभाव हम जब उसका कोई भेद नहीं...

गीता कुरान बाईबिल जब मिलता कोई मतभेद नहीं।

दो पग हम बढ़े